बिहार चुनाव: वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने की जद्दोजहद - एक जमीनी हकीकत

बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन की कहानी, जहां नागरिकता की आशंकाओं से लेकर वोटर समावेश तक, चुनाव आयोग ने कैसे बदला अपना रुख। जानिए जमीनी हकीकत और लोगों की मुश्किलें।

 बिहार चुनाव: वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने की जद्दोजहद - एक जमीनी हकीकत

बिहार चुनाव: वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने की जद्दोजहद - एक जमीनी हकीकत

 

बिहार की चुनावी फिज़ा में, वोटर लिस्ट हमेशा से एक अहम मुद्दा रही है। इस बार, चुनाव आयोग (Election Commission) ने वोटर लिस्ट को अपडेट करने के लिए एक विशेष अभियान (Special Intensive Revision - SIR) चलाया, लेकिन इसकी शुरुआत विवादों से घिरी रही। ऐसा लग रहा था, मानो हर वोटर को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। लेकिन, जैसे-जैसे यह अभियान आगे बढ़ा, चुनाव आयोग ने जमीनी हकीकत को समझा और अपने रुख में बदलाव किया। यह कहानी है, बिहार के वोटरों की जद्दोजहद और चुनाव आयोग के बदलाव की।

 

शुरुआत: नागरिकता की आशंकाएं 🎭

जून के महीने में, चुनाव आयोग ने बिहार में वोटर लिस्ट को अपडेट करने का आदेश दिया। इस आदेश के अनुसार, जिन लोगों का नाम 2003 की वोटर लिस्ट में नहीं था, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए 11 दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना था। यह सुनकर लोगों में डर का माहौल बन गया। लोगों को लगने लगा कि यह नागरिकता की जांच है।

 

🎨 "यह तो ऐसा लग रहा था, मानो हमें फिर से अपनी नागरिकता साबित करनी होगी," एक बुजुर्ग वोटर ने कहा।

चुनाव आयोग ने आधार कार्ड (Aadhaar Card) और राशन कार्ड (Ration Card) जैसे दस्तावेजों को भी मान्य नहीं माना। यहां तक कि, चुनाव आयोग ने अपने ही द्वारा जारी किए गए वोटर आईडी कार्ड (EPIC) को भी अमान्य कर दिया। इससे लोगों में और भी ज्यादा गुस्सा और निराशा फैल गई।

 

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और चुनाव आयोग को नियमों में ढील देने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को 12वें दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने का आदेश दिया।

 

जमीनी हकीकत: मुश्किलें और चुनौतियां 🌄

चुनाव आयोग के अधिकारियों को जमीनी स्तर पर काम करने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ग्रामीण इलाकों में, लोगों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं थे। कई लोगों के पास तो जन्म प्रमाण पत्र (Birth Certificate) भी नहीं था।

 

🎨 "हमारे पास तो कोई कागज-पत्तर नहीं है। हम तो गरीब लोग हैं, कहां से लाएं ये सब?" एक गरीब महिला ने अपनी मजबूरी बयां की।

 

चुनाव आयोग ने इस समस्या को समझा और अपने अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे लोगों को वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने में मदद करें। अधिकारियों को कहा गया कि वे 2003 की वोटर लिस्ट में लोगों के नाम खोजें और उन्हें वोटर लिस्ट से जोड़ने की कोशिश करें।

 

बदलाव: समावेश की ओर कदम 🚶‍♀️

चुनाव आयोग ने अपनी रणनीति में बदलाव किया। अब, अधिकारियों को लोगों को दस्तावेज जमा करने के लिए मजबूर करने की बजाय, उन्हें वोटर लिस्ट में शामिल करने के तरीके खोजने के लिए कहा गया।

 

  • अधिकारियों ने सरकारी डेटाबेस (Government Database) का इस्तेमाल किया।
     
  • परिवार रजिस्टर (Family Register) और महादलित विकास रजिस्टर (Mahadalit Vikas Register) जैसे दस्तावेजों की मदद ली गई।
     
  • यहां तक कि, बिहार जाति सर्वेक्षण (Bihar Caste Survey) के आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया गया।

 

इस बदलाव का नतीजा यह हुआ कि वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हुआ।

 

अंतिम परिणाम: 7.42 करोड़ वोटर 📊

आखिरकार, वोटर लिस्ट को अपडेट करने का काम पूरा हो गया। इस दौरान, 68.6 लाख नाम हटाए गए, जिनमें ज्यादातर मृतक, पलायन करने वाले या दोहरे नाम वाले लोग थे। वहीं, 21.5 लाख नए नाम जोड़े गए। इस तरह, बिहार में वोटरों की कुल संख्या 7.42 करोड़ हो गई।

 

यह कहानी हमें बताती है कि चुनाव आयोग ने कैसे अपनी गलतियों से सीखा और लोगों को वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए सही कदम उठाए। यह लोकतंत्र (Democracy) की जीत है।

 

निष्कर्ष: लोकतंत्र की जीत 🇮🇳

बिहार में वोटर लिस्ट को अपडेट करने का यह अभियान एक सबक है। यह हमें बताता है कि चुनाव आयोग को लोगों की मुश्किलों को समझना चाहिए और उन्हें वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। लोकतंत्र में, हर नागरिक को वोट देने का अधिकार है, और यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि कोई भी नागरिक इस अधिकार से वंचित न रहे।

🎨 "वोट हमारा अधिकार है, और हम इसे लेकर रहेंगे!"

 

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